रविवार, 8 मार्च 2009

अंग्रेज़ी....... हाय मार डाला .....

कभी - कभी राह चलते -चलते या फिर किताबों के पन्ने पलटते हुए ही कुछ रोचक वाकये या पंक्तियों से रूबरू होने का मौका जिंदगी में सभी को मिल जाता है जैसे कि -

" भारतीय शिक्षा पद्धति रास्ते के किनारे पड़ी हुई उस कुतिया के समान है जिसे कोई भी राह चलते दो लात लगा सकता है"- श्रीलाल शुक्ल (रागदरबारी)



"हर पुरूष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है ......... जो उसे असफलता की ओर धकेलने को प्रयासरत रहती है"- सन्दर्भ याद नही।



मित्रों कल दोपहर टी वी चैनल बदलते हुए एक फ़िल्म पर नजर पड़ी। कोई दक्षिण भारतीय फ़िल्म थी जिसे हिन्दी में डब किया गया था । दृश्य यह था कि अंग्रेजी सिखाने की क्लास चल रही है और अध्यापक अंग्रेजी का महत्व समझाते हुए कह रहा है-

" बेटा ! हिन्दी हमारी माँ है जिसकी जरूरत सिर्फ़ पाँच या सात साल के लिए होती है लेकिन अंग्रेजी पत्नी के समान है जिसकी जरूरत जीवन भर पड़ती है।"



होली की शुभकामनाये. बुरा न मानो होली है........

गुरुवार, 5 मार्च 2009

मैं सेकुलर नही हूँ......

चुनाव की फाल्गुनी बयार अब धीरे - धीरे जेठ की तपती लू में बदलने जा रही है और एक बार फिर हिंदुत्व बनाम "सेक्लुरिस्म" का नारा बुलंद हो चुका है। हिंदुत्व को गरियाने का बारामासी राग मंद से सम पर आ गया है और द्रुत की ओर अग्रसर है। इस पोस्ट को लिखने से पहले मैं संजय बेगानी की एक पोस्ट पढ़ रहा था - नेताजी हिन्दू थे तो इसमें बूराई क्या है? और मैंने उसी पर टिप्पणी देने का मन बनाया था परन्तु "सेक्लुरिस्म" बीच में आ गया तो मैंने इसे एक नयी पोस्ट का रूप देने का फैसला किया।


तो आइये हम एक वर्जित विषय पर चर्चा करे - हिन्दुत्व


दरअसल जिसे आज हम हिन्दू धर्म कहते है वह कोई धर्म है ही नहीं. आर्य या वैदिक धर्म का जन्म जिस समय हुआ था उस समय दुनिया में धर्म (पंथ) नाम की कोई चीज थी ही नहीं. समाज के मनीषियों ने समाज और जीवन को निर्बाध और सुचारू ढंग से चलाये रखने के लिए जीवन के कुछ नियम बनाये थे जिनके पीछे उचित तर्क और गहन दर्शन था. "हिन्दू कोई धर्म नहीं वास्तव में एक जीवन दर्शन है". वह जीवन को जीने का एक तरीका है. यही बात सुप्रीम कोर्ट अपने एक फैसले में दोहरा चुका है. हिन्दू शब्द अरबवासिओं ने सिन्धु नदी के पूरब की ओर रहने वाले सभी मनुष्यों के लिए एक जातिगत संज्ञा के रूप में प्रयोग किया था। कालांतर में यह वैदिक धर्म को मानने वालों के लिए रूढ़ हो गया परन्तु हिन्दू कोई भी हो सकता है जो इसके जीवन दर्शन को मानता हो , उसका पालन करता हो.

बहस का मुद्दा धर्म नहीं वरन "धर्मनिरपेक्षता" (सेकुलरिस्म) है . पहले ये जानने की आवश्यकता है कि सेकुलर कौन है।

यदि ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करना ही धर्मनिरपेक्षता है तो फिर तो पूरी दुनिया ही सांप्रदायिक है (सिवाय चंद अनीश्वरवादिओं, कम्युनिस्टों के)। ऐसे में केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों को सांप्रदायिक कहना किस तरह उचित है.

२. यदि किसी धर्म में आस्था रखते हुए भी दूसरे धर्मों की मान्यताओं और विचारों को आदर देना धर्मनिरपेक्षता है तो फिर एक हिन्दू सबसे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष होता है क्योंकि हिंदुत्व का मूल ही सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता है।एक हिन्दू को न मंदिर में सर झुकाने से परहेज है ना ही मस्जिद या गिरजे में ( मैं स्वयं को इसी वर्ग में रखता हूँ). परन्तु क्या यही बात दूसरे धर्मों के विषय में भी कही जा सकती है?

३. किसी भी पंथ में न बंधना और अपना एक अलग रास्ता पकड़ना (जैसा कि कम्युनिस्ट करने की सोचते है) भी एक नए पंथ को जन्म देने जैसा ही है। (जैसे शीत- युद्ध के ज़माने में दो ध्रुवीय विश्व को नकार कर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन चलाया गया था परन्तु क्या वह एक तीसरा गुट तैयार करने जैसा नहीं था?) फिर "धर्म की निरपेक्षता" रही कहाँ और स्वयं कम्युनिस्ट भी सेकुलर कहाँ रहे ?

मित्रों, यदि आप कोई चौथा विकल्प भी सुझा सकें तो स्वागत है...... लेकिन मैं तो "सेकुलर" नही ही हूँ.