शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
मीडिया बिकता है बोलो खरीदोगे.................
पिछले दिनों अंग्रेज़ी पत्रिका आउटलुक ने 'न्यूज़ फ़ॉर सेल' यानी 'बिकाउ ख़बरों' पर एक अंक निकाला.
इसमें ज़िक्र किया गया है कि किस तरह चुनावों के दौरान ख़बरों के लिए नेताओं को पैसे देने पड़ रहे हैं। किस तरह ख़बरें प्रकाशित-प्रसारित करने के लिए दरें तय कर दी गई हैं. इसमें अख़बारों के साथ टेलीविज़न चैनल भी बराबरी से शरीक हैं.
हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान बीबीसी हिंदी ने भी ख़बरों के विज्ञापन में तब्दील हो जाने की रिपोर्ट छापी थी। दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ के साथ मिलकर अख़बारों की इस प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा था, जो अभी भी जारी है.
इस बीच भारतीय प्रेस परिषद और चुनाव आयोग के बीच एक बैठक भी हुई है जिसमें दोनों ही संस्थाओं ने अपनी-अपनी तरह से बेबसी ज़ाहिर कर दी है कि वे इसे नहीं रोक सकते।
हो सकता है कि इस घटनाक्रम से कुछ लोगों को आश्चर्य हो रहा हो लेकिन इस पेशे में लंबे समय से होने की वजह से मैं जानता हूँ कि ख़बरों के प्रकाशन के लिए पैसे लिए जाने का सिलसिला नया तो हरगिज़ नहीं है।
मैंने इसे संस्थागत रुप लेते देखा है. चुनाव सुधारों की क्रांति करने वाले दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने पहली बार कहा था कि अख़बारों में दिए जाने वाले विज्ञापनों का ख़र्च या तो राजनीतिक दलों का ख़र्च माना जाएगा या फिर उम्मीदवारों का.
इस घोषणा ने न केवल उम्मीदवारों को साँसत में डाला बल्कि अख़बारों की भी साँसें रोक दीं। एकाएक चुनावी विज्ञापन घट गए. अख़बारों में चुनाव का उत्सवी माहौल ख़त्म होने लगा. और उसी समय शुरु हुआ, उम्मीदवारों से नक़द वसूलने का सिलसिला, इस अलिखित समझौते के साथ कि ख़बरों में विज्ञापन की भरपाई की जाएगी और इस ख़र्च का कहीं ज़िक्र भी नहीं किया जाएगा.
तब टेलीविज़न चैनल नहीं थे इसलिए यह तकनीक अख़बारों ने अपने दम पर विकसित की। धीरे-धीरे नक़द के बदले ख़बरें प्रकाशित करने की प्रक्रिया को व्यवस्थित रुप दे दिया गया और यह तय कर दिया गया कि कितने पैसे में कितनी जगह मिलेगी. ठीक विज्ञापन की तरह.
जिन दिनों चुनाव नहीं होते उन दिनों भी कई मीडिया ग्रुप ख़बरों के लिए सौदे में लगे रहते हैं। यह सौदा सरकारी विज्ञापनों के अलावा होता है. कभी किसी को अपने लिए शहर की सबसे क़ीमती ज़मीन कौड़ियों के मोल चाहिए होती है, तो कभी अख़बार के कथित घाटे की भरपाई के लिए खदान की लीज़ चाहिए होती है. अब तो मीडिया ग्रुपों की दिलचस्पी कई तरह के उद्योग-धंधों में हो चली है.
सरकारें मीडिया हाउस के मालिकों को उद्योग-धंधों में उचित-अनुचित लाभ देती हैं और बदले में या तो वे सरकार की तारीफ़ में ख़बरें छापते हैं या फिर सरकार की कमियों-कमज़ोरियों को अनदेखा करते चलते हैं।
ग़रीब आदिवासियों की पीड़ा अब अख़बारों में इसलिए नगण्य जगह पातीं हैं क्योंकि इससे राज्य सरकार की किरकिरी हो जाती है।
यह सिलसिला सिर्फ़ सरकार और अख़बार या टेलीविज़न चैनल के बीच नहीं है अब औद्योगिक घराने भी ख़बरें ख़रीदना सीख गए हैं.
सो मीडिया तो बहुत पहले बिक चुका था, दुनिया को इसका पता बाद में चला। और दुनिया को फ़िलहाल जितना पता है, भारत का मीडिया उससे कहीं ज़्यादा बिका हुआ है.
इस ख़रीद-फ़रोख़्त का दुखद पहलू यह है कि उपकृत होने और करने का सिलसिला पहले व्यक्तिगत स्तर पर होता था और बाद में यह मीडिया हाउस के प्रबंधकों और उम्मीदवारों के बीच बाक़ायदा शुरु हो गया. यह धीरे-धीरे उन पत्रकारों तक भी पहुँच गया, जो कभी अपने आपको श्रमजीवी कहते थे.
कुछ ही अख़बार या टेलाविज़न चैनल होंगे जो बिकाउ नहीं हैं, लेकिन सौभाग्य से ऐसे पत्रकार अभी भी कम हैं जो अख़बार के कॉलमों या टीवी के स्लॉट की तरह सहज सुलभ हैं.
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
आईये बिस्मिल्लाह करें वंदे मातरम से.......
वन्दे मातरम
वन्दे मातरम
वन्दे मातरम
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मित्रों, वन्दे मातरम के इतिहास, महत्व और गरिमा से सभी परिचित हैं। इस एक गीत और वन्दे मातरम के नारे ने अंगरेजों की नींव हिला दी और उन्हें बंगाल विभाजन को वापस लेने पर मजबूर कर दिया. इस गीत और नारे से भयभीत होकर अंगरेजों ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया और हजारों देशभक्तों ने उस प्रतिबन्ध को वन्देमातरम के उदघोष से भंग किया. उन्होंने लाठियाँ खाई, गोली खाई, कालापानी झेला लेकिन वन्दे मातरम को एक क्षण के लिए भी दिल से दूर न किया. आज हम एक स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं तो यह हमारे पूर्वजों के महान बलिदान का फल है. फिर इस बलिदान की गरिमा और स्मृति के इस पवित्र चिन्ह की रक्षा करना क्या हमारा कर्तव्य नहीं है??? आज जब इस पवित्र गीत (जो कि हमारे देश का राष्ट्रगीत भी है) का कुछ लोगों द्वारा यह कहकर विरोध किया जा रहा है कि उनके धर्म के विरुद्ध है, तो हमारा कर्तव्य है कि हम साजिश का विरोध करें।
कैसे????
आइये संकल्प करें कि हम अपनी प्रत्येक पोस्ट और टिप्पणी का आरम्भ "वन्दे मातरम" से और समापन "जयहिंद" से करेंगे.
उन्हें वन्दे मातरम से परहेज है लेकिन हमें तो नहीं...........
जयहिंद
जयहिंद
जयहिंद
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
एक महान साहित्यकार और मुझ जैसे सांप्रदायिक, कट्टर हिन्दुत्ववादी मूर्ख का संवाद
महान साहित्यकार उदय प्रकाश जी की ताजा पोस्ट पर की गयी मेरी टिप्पणी के जवाब में उदय प्रकाश जी से कुछ ज्ञान और "विशेषण" प्राप्त कर अनुग्रहीत हुआ हूँ. ब्लाग पर होने के नाते न तो यह पोस्ट व्यक्तिगत है और न ही मेरी टिप्पणी और उनका प्रतिउत्तर. अतः आप सभी को इस विमर्श में आमंत्रण देकर मैं उदय जी की निजता को भंग नहीं कर रहा हूँ ऐसा मेरा विश्वास है.मैं इसे इसलिए भी इसलिए भी अनुचित नहीं समझता क्योंकि उदय जी ने मुझ जैसे "मूढ़ मगज, सांप्रदायिक, युद्धप्रिय, रक्तपिपासु" के साथ किसी भी प्रकार के संवाद की सम्भावना को खारिज कर दिया है. शायद आप उनके विचारों को बेहतर समझ सकें अतः आप सभी को आमंत्रित करता हूँ-
उदय जी, पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण की जिम्मेदारी भारत पर डालकर आप इतिहास दोहरा रहें हैं क्योंकि १९६२ के चीन हमले कि जिम्मेदारी भी हमारे विद्वान वामपंथी भारत पर ही डालते हैं जबकि सत्य यही है कि पाकिस्तान परमाणु बम पहले ही बना चुका था (इसे चुरा या खरीद चुका था पढें). भारत का परमाणु परीक्षण पाकिस्तान को लक्ष्य कर नहीं वरन चीन को ध्यान में रखकर किया गया था. जहाँ तक जुल्फिकार, बेनजीर या जिया-उल-हक़ के पागलपन की बात है उसके लिए भारत किस तरह दोषी है? पाकिस्तान का जन्म ही हिन्दू विरोध की बुनियाद पर हुआ है. "हिन्दू हम पर राज करेंगे" कहकर मुसलमानों को पाकिस्तान के लिए भड़काया गया. आज पाकिस्तान की क्या हालत है वह किसी से छुपी नहीं है और उसके बावजूद वहां के नेता किस राह पर चल रहें हैं और दुनिया की आँखों में धूल झोंकने में मशगूल हैं वह भी जगजाहिर है।
October 7, 2009 3:57 PM
nishachar ji, i regret that i don't have an access to nagari font here, however i 'd certainly like to make a short comment over your reaction to the post.first, i've not 'acuused' any single political nation-state or a similar state-head for nuclear explosion and about madness towards wmd. if i borrow from the title of khushvant singh's column, it's 'malice towards all'.secondly, it seems that your mind is heavily and irrepairably 'indoctrinated' by a virus, injected in side by hate-traders and war_mongers. you've certainly lost your ability to think as a human individual, as a citizen having an identity out side religious, ethnic, racial, language, creed or other id-icons provided and imposed by the same powers, who makes and creates catastrophe,thirdly, in terms of social sciences, you are trapped in a mind-set which has strong comunity bias, it's called 'inter-community perspective', where one community (or race or any such id) thinks that the 'other' community or group is 'bad', 'filthy', 'aggressive', 'violent', 'inferior'...etc. where one community or group nurtures hate and suspicion about the group or community. if you take up a journey backward in civilizational plan, you can reach up to a tribal stage where a small group of kabeela becomes canibal to the 'other' kabeela because he has similar inter kabeela-perspective towards the other.in my humble opinion, there is no dialogue possible with a mind like you, you can only recieve signals from the media,power-holders and communalized states.it's pathetic that you've made your unique human-mind, gifted by the God, victim and trash-bin of such forces.what i can have for you, is....Finally Prayer..(Aur Ant me Praarthanaa)That's it !
October 8, 2009 1:11 PM
गुरुवार, 23 जुलाई 2009
सच का सामना या दर्शकों को टोपी??????????
हम जो कहें वह जवाब दीजिये। उसे हम अपने मुताबिक (दर्शकों के रोमांच का ख्याल रखते हुए) सही या गलत ठहराएंगे।
आप अपने पैसे से मतलब रखिये और हमें भी कमाने दीजिये। हाँ! इसके लिए आपको समाज में थोडी शर्मिंदगी झेलनी पड़ सकती है, परन्तु इतने पैसों के लिए आप इतना बलिदान तो कर ही सकतें हैं।
फिर भारतीय पब्लिक तो अल्प-स्मृति से ग्रस्त है. और हम इसे इतना ग्लेमर प्रदान कर रहें हैं कि भ्रष्टाचार या समलैंगिकता की तरह इसे भी सामाजिक मान्यता मिल जायेगी।
क्या एक सोची -समझी साजिश के तहत भारतीय मूल्यों को तार - तार नहीं किया जा रहा ?
या फिर यह बन्दर के हाथ में उस्तरे वाला मामला है?
रविवार, 8 मार्च 2009
अंग्रेज़ी....... हाय मार डाला .....
" भारतीय शिक्षा पद्धति रास्ते के किनारे पड़ी हुई उस कुतिया के समान है जिसे कोई भी राह चलते दो लात लगा सकता है"- श्रीलाल शुक्ल (रागदरबारी)
"हर पुरूष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है ......... जो उसे असफलता की ओर धकेलने को प्रयासरत रहती है"- सन्दर्भ याद नही।
मित्रों कल दोपहर टी वी चैनल बदलते हुए एक फ़िल्म पर नजर पड़ी। कोई दक्षिण भारतीय फ़िल्म थी जिसे हिन्दी में डब किया गया था । दृश्य यह था कि अंग्रेजी सिखाने की क्लास चल रही है और अध्यापक अंग्रेजी का महत्व समझाते हुए कह रहा है-
" बेटा ! हिन्दी हमारी माँ है जिसकी जरूरत सिर्फ़ पाँच या सात साल के लिए होती है लेकिन अंग्रेजी पत्नी के समान है जिसकी जरूरत जीवन भर पड़ती है।"
होली की शुभकामनाये. बुरा न मानो होली है........
गुरुवार, 5 मार्च 2009
मैं सेकुलर नही हूँ......
चुनाव की फाल्गुनी बयार अब धीरे - धीरे जेठ की तपती लू में बदलने जा रही है और एक बार फिर हिंदुत्व बनाम "सेक्लुरिस्म" का नारा बुलंद हो चुका है। हिंदुत्व को गरियाने का बारामासी राग मंद से सम पर आ गया है और द्रुत की ओर अग्रसर है। इस पोस्ट को लिखने से पहले मैं संजय बेगानी की एक पोस्ट पढ़ रहा था - नेताजी हिन्दू थे तो इसमें बूराई क्या है? और मैंने उसी पर टिप्पणी देने का मन बनाया था परन्तु "सेक्लुरिस्म" बीच में आ गया तो मैंने इसे एक नयी पोस्ट का रूप देने का फैसला किया।
तो आइये हम एक वर्जित विषय पर चर्चा करे - हिन्दुत्व
दरअसल जिसे आज हम हिन्दू धर्म कहते है वह कोई धर्म है ही नहीं. आर्य या वैदिक धर्म का जन्म जिस समय हुआ था उस समय दुनिया में धर्म (पंथ) नाम की कोई चीज थी ही नहीं. समाज के मनीषियों ने समाज और जीवन को निर्बाध और सुचारू ढंग से चलाये रखने के लिए जीवन के कुछ नियम बनाये थे जिनके पीछे उचित तर्क और गहन दर्शन था. "हिन्दू कोई धर्म नहीं वास्तव में एक जीवन दर्शन है". वह जीवन को जीने का एक तरीका है. यही बात सुप्रीम कोर्ट अपने एक फैसले में दोहरा चुका है. हिन्दू शब्द अरबवासिओं ने सिन्धु नदी के पूरब की ओर रहने वाले सभी मनुष्यों के लिए एक जातिगत संज्ञा के रूप में प्रयोग किया था। कालांतर में यह वैदिक धर्म को मानने वालों के लिए रूढ़ हो गया परन्तु हिन्दू कोई भी हो सकता है जो इसके जीवन दर्शन को मानता हो , उसका पालन करता हो.
बहस का मुद्दा धर्म नहीं वरन "धर्मनिरपेक्षता" (सेकुलरिस्म) है . पहले ये जानने की आवश्यकता है कि सेकुलर कौन है।
१ यदि ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करना ही धर्मनिरपेक्षता है तो फिर तो पूरी दुनिया ही सांप्रदायिक है (सिवाय चंद अनीश्वरवादिओं, कम्युनिस्टों के)। ऐसे में केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों को सांप्रदायिक कहना किस तरह उचित है.
२. यदि किसी धर्म में आस्था रखते हुए भी दूसरे धर्मों की मान्यताओं और विचारों को आदर देना धर्मनिरपेक्षता है तो फिर एक हिन्दू सबसे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष होता है क्योंकि हिंदुत्व का मूल ही सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता है।एक हिन्दू को न मंदिर में सर झुकाने से परहेज है ना ही मस्जिद या गिरजे में ( मैं स्वयं को इसी वर्ग में रखता हूँ). परन्तु क्या यही बात दूसरे धर्मों के विषय में भी कही जा सकती है?
३. किसी भी पंथ में न बंधना और अपना एक अलग रास्ता पकड़ना (जैसा कि कम्युनिस्ट करने की सोचते है) भी एक नए पंथ को जन्म देने जैसा ही है। (जैसे शीत- युद्ध के ज़माने में दो ध्रुवीय विश्व को नकार कर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन चलाया गया था परन्तु क्या वह एक तीसरा गुट तैयार करने जैसा नहीं था?) फिर "धर्म की निरपेक्षता" रही कहाँ और स्वयं कम्युनिस्ट भी सेकुलर कहाँ रहे ?
मित्रों, यदि आप कोई चौथा विकल्प भी सुझा सकें तो स्वागत है...... लेकिन मैं तो "सेकुलर" नही ही हूँ.
शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
स्लमडॉग, क्रिकेट, कश्मीर और गुलाबी चड्ढी..........
अभी कल - परसों ही न्यूज़ चैनलों में ये खबर चलनी शुरू हुई कि इस फिल्म के बाल कलाकारों के लिए इस शोहरत का खुमार उतारने का कार्य किया एक जोरदार झापड़ ने.......... जी हाँ! और ये झापड़ पड़ा दस वर्षीय अजहरुद्दीन मोहम्मद इस्माईल को जो मुंबई की एक झोपड़पट्टी से उठकर रातोरात ऑस्कर जीतने वाली टीम का हिस्सा बन गया लेकिन उसकी गुस्ताखी देखिये - उसने लम्बी हवाई यात्रा में थक जाने के कारण सोने की इच्छा जताई और घर के बाहर भीड़ लगाये मीडिया वालों को इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया. उसके पिता को उसकी ये मासूम शोखी नागवार गुजरी और फिर एक जोरदार झापड़ ने अजहरुद्दीन की नीद का खुमार उतार दिया. इस मसले पर शोरशराबा जारी है और मंगलोर के निवासियों को तालिबानी घोषित कर देने वाली हमारी माननीय केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने इस मामले की जाँच के आदेश दे दिए है. आखिर उन्हें महिलाओं और बच्चों की इतनी फिकर जो है....
अब जरा दूसरी खबर को देखें............
भारतीय कश्मीर (चूँकि अब दस्तावेजों में इसे इसी नाम से जाना जाता है) में अनेको आतंकवादी संगठन सक्रिय है जो विदेशी पैसे और कठमुल्लेपन के जुनून में इस धरती के स्वर्ग को नर्क बना चुके है. इन्ही आतंकवादी संगठनो का एक महिला प्रकोष्ठ है दुख्तराने - मिल्लत (मजहब की बेटियाँ).इस संगठन की प्रमुख हैं असिया अंदराबी. इनके पति शौकत अहमद उर्फ़ कासिम आतंकवादी कमांडर रह चुके हैं और फिलहाल जेल में है. मोहतरमा स्वयं भी जब तब अपने कारनामों के वजह से जेल या नजरबंदी में रहती हैं. इन्हें सभी भारतीय फिल्म अश्लील प्रतीत होती है और ये घाटी में उनके पोस्टरों पर कालिख पोता करती है. इन्हें बगैर बुरखे वाली लड़कियां और स्त्रियाँ चरित्रहीन और अशोभनीय लगती हैं .हिजबुल मुजाहिदीन के साथ 1993 में इन्होने कश्मीर में ये फरमान जारी किया कि सभी लड़कियां और स्त्रियाँ बुरखा पहने वरना अंजाम भुगतने को तैयार रहें. इनके भाइयों (आतंकवादियों) ने कई स्त्रियों के पैरों पर गोली मार दी जो इनके लिहाज से शालीन और शरीयत की तजवीज के अनुसार पोशाक नहीं पहने थी. इनके कार्यकर्ताओं?? ने बिना बुरखे वाली औरतों के चेहरे पर तेजाब भी फेंक दिया. इन्हें बहुविवाह प्रथा में कोई बुराई नहीं दिखती और इन्ही के शब्दों में - "मुझे अपने घर में मेरे शौहर की अन्य बीवियों के साथ रहने में अत्यंत प्रसन्नता होगी।"
इन्ही मोहतरमा का बेटा जिसका नाम इन्होने रखा है मुहम्मद बिन कासिम (जी हाँ!! सिंध का लुटेरा और भारत का पहला मुस्लिम आक्रमणकारी)। बरखुरदार को क्रिकेट खेलने का शौक और बकौल इनके जूनून है. जम्मू कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन की अंडर 16 टीम में चुन भी लिए गए लेकिन इनकी माँ ने हुक्म सुनाया- क्रिकेट को चुनो या फिर माँ - बाप को!! मजबूर बालक को माँ - बाप चुनने पड़े. असिया को भय है की कहीं उनका बेटा भारतीय टीम के लिए भी ना चुन लिया जाये क्योंकि भारत विरोध ही तो उनके आन्दोलन की बुनियाद है. उन्हें यह भी डर है कि क्रिकेट में मिलने वाले करोडो रुपयों कि चमक के आगे उनका बेटा कही अपने माँ-बाप की सनक को भूल ना जाए.
सुन रही है रेणुका जी ?? क्या आप मोहतरमा अंदराबी को भी नोटिस भेजेंगी या फिर कश्मीर भारत के कानून के दायरे से बाहर है?? मैं जानता हूँ आप ऐसा नहीं कर पाएँगी। दरअसल माननीय मत्री महोदया को बच्चो और महिलाओं की नहीं बल्कि मीडिया और कैमरों की ज्यादा चिंता रहती है. जहाँ बगैर किसी राजनीतिक खतरे के मुफ्त की पब्लिसिटी मिल जाये वहां मुंह चलाने में क्या हर्ज है? भारत में जाने कितने अजहर यहाँ - वहां अपने माँ- बाप और मालिकों से रोज पिटते रहते है परन्तु मंत्री महोदया को जब "स्लमडॉग" के बहाने फोटो खिचाने का बेहतरीन मौका हाथ लग रहा हो तो फिर गली मोहल्ले में कोई राजू -पप्पू पिटता रहे उनकी बला से।
गुलाबी चड्ढी अभियान की कर्ता-धर्ता जरा बतायेंगी (यदि वे अब भी होश में हैं) क्या वे असिया अंदराबी को भी गुलाबी.......मेरा मतलब है ....... कुछ भेजने की कृपा करेंगी??